देश के शीर्ष विश्वविद्यालय जेएनयू में होने व समकालीन विमर्शों में सक्रिय
होने के कारण अक्सर इस तरह के ई-मेल और फोन आते हैं जिनमें सामने वाला कहता
है, 'मेरे भाई या मेरी पत्नी या मुझे पीएच.डी. करनी है। कोई विषय बता दीजिए।'
कुछ फोन इस प्रकार के भी आते हैं कि 'मेरा पीएच.डी. विषय यह है, आप मुझे इसे
लिखने में मदद कीजिए'। जाहिर है कि संपर्क करने वाले इन दोनों की तरह के लोगों
की शोध में कोई रुचि नहीं होती। जोखिम लेकर यह भी कहा जा सकता है कि हिंदी के
ज्यादातर शोधार्थियों की शोध में कोई रुचि नहीं है। उनमें आधे तो यह भी नहीं
जानते कि शोध होता क्या है और यह कैसे किया जाता है!
संपर्क करने वाले सबसे ज्यादा लोग अपना विषय आदिवासी कथा साहित्य पर बताते
हैं। चूँकि आदिवासी साहित्य मेरी रुचि का क्षेत्र है इसलिए शुरू में मैं बहुत
खुश होता हूँ जब शोधार्थी यह बताते हैं कि वे आदिवासी साहित्य पर काम कर रहे
हैं या करना चाहते हैं। लेकिन जैसे ही मैं उनसे पहला सवाल पूछता हूँ, मेरी
उम्मींदों पर पानी फिर जाता है। मेरा पहला सवाल होता है - इस विषय के बारे में
आपने कौन सी रचनाओं और रचनाकारों को पढ़ा है! संपर्क करने वाले शोधार्थियों
में आधे से अधिक तो इसका कोई जवाब नहीं दे पाते। शेष शोधार्थी हिंदी के
गिने-चुने दो-तीन गैर-आदिवासी साहित्यकारों का नाम बता देते हैं। उनकी भी कोई
रचना इन्होंने नहीं पढ़ी होती। कुछ 10 से 15 प्रतिशत शोधार्थी ही एकाध आदिवासी
साहित्यकार का नाम बता पाते हैं।
हिंदी के शोधार्थियों की यह समस्या अकेले आदिवासी साहित्य पर काम कर रहे
शोधार्थियों की ही नहीं है। किसी भी विषय पर काम कर रहे या करने के इच्छुक
शोधार्थियों की कमोबेश यही स्थिति है। इसकी दो वजहें हैं - शोधार्थियों की शोध
में अरुचि और दूसरा, शोधार्थियों को शोध-प्रविधि के बारे में जानकारी न होना।
शोध को डिग्री और नौकरी से जोड़ने से शोधार्थियों की रुचि हाशिये पर चली गई
है। उनके एडमिशन के वक्त अक्सर उनकी रुचि नहीं, रटंत ज्ञान की गहराई परखने की
कोशिश होती है। परिणामस्वरूप ऐसे विद्यार्थियों का चयन होता है जो परीक्षा पास
करने की कला में माहिर होते हैं। शोध कार्यक्रम में प्रवेश के सामान्यतः तीन
कारण होते हैं - जेआरएफ या किसी अन्य फैलोशिप में चयन होने की वजह से फैलोशिप
का लाभ उठाने के लिए रिसर्च कोर्स में एडमिशन की अनिवार्यता, एकेडमिक नौकरी
में फायदा मिलने की संभावना और तीसरा, जॉब न मिलने की स्थिति में खाली बैठने
की तुलना में कुछ करते रहने की संतुष्टि। जाहिर है इन तीनों का शोध और
शोध-रुचि से कोई संबंध नहीं। जब शोध में रुचि ही नहीं होगी तो न तो शोधार्थी
शोध के बारे में जान पाएँगे और न अच्छा शोध ही कर पाएँगे।
शोध एक अलग तरह का काम है। इसके लिए शारीरिक, आर्थिक या राजनीतिक क्षमता से
काम नहीं चलेगा। शोध के लिए पहली शर्त व्यक्ति की शोध में रुचि होना। शोध में
रुचि लेने वाले ही शोध के क्षेत्र में आएँ, इसके लिए सबसे पहले शोध को डिग्री
से अलग करना होगा। एम.फिल. और पीएच.डी. की डिग्रियों से नाभि-नालबद्ध होने के
कारण भारत में शोधमात्र का बहुत नुकसान हुआ है। आजकल बाजार में अकादमिक नकल
पकड़ने वाले सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं। इन सॉफ्टवेयरों की मदद से जब देश के अच्छे
विश्वविद्यालयों की थीसिसों की जाँच की जा रही है तो अधिकांश शोधार्थी नकलची
साबित हो रहे हैं। विश्वविद्यालयों में पढ़ा रहे प्रोफेसरों पर साहित्य चोरी
के आरोप साबित हो रहे हैं। जब डिग्री प्राप्ति करने की खानापूर्ति के लिए
थीसिस लिखी जाएगी तो लक्ष्य डिग्री अवार्ड होना ही होगा, न कि शोध की मौलिकता।
कई विश्वविद्यालयों में तो बाकायदा विश्वविद्यालय के आस-पास की फोटो-कॉपी और
प्रिंटआउट की दुकान पर थीसिस खरीदी-बेची जाती है, जिसमें बस शोधार्थी और
शोध-निर्देशक का नाम बदलने की जरूरत पड़ती है। कुछ विश्वविद्यालयों में थीसिस
ठेके पर लिखी जाती है। कौन ठेके पर थीसिस लिखते होंगे और कौन लिखाते होंगे,
अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। इन थीसिसों में मौलिकता की खोज ही बेमानी है।
विश्वविद्यालयों और शोध की दुनिया के इस अँधेरे के बीच कुछ अच्छे विद्यार्थी
भी होते हैं जो सच्चे मन और रुचि से शोध की दुनिया में प्रवेश करना चाहते हैं
(करना चाहते इसलिए क्योंकि अच्छे विश्वविद्यालयों में शोध सीटों के अभाव के
चलते कुछ विद्यार्थियों को शोध कोर्सों में प्रवेश ही नहीं मिल पाता), और कुछ
करते भी हैं। भारत के कुल ग्रेजुएट्स में से केवल 1 प्रतिशत विद्यार्थी ही शोध
कर पाते हैं। इनमें से भी बहुत थोड़े विद्यार्थियों को अच्छे विश्वविद्यालयों
में प्रवेश मिल पाता है। कुछ शोधार्थियों को सुपरवाइजर के रूप में अधीनस्थ
कॉलेजों के प्राध्यापक मिलते हैं जिनसे उनका संवाद फैलोशिप फॉर्म पर साइन
कराने के अलावा शायद ही कभी हो पाता है।
शोध की दुरावस्था का सबसे बड़ा कारण भारत के ज्यादातर विश्वविद्यालयों के
प्राध्यापकों का आउटडेटेड होना और शोधार्थी-सुपरवाइजर का शोध-प्रविधि से
अनभिज्ञ होना है। चूँकि हमारे यहाँ पढ़ाई नौकरी के लिए की जाती है इसलिए नौकरी
मिल जाने के बाद ज्यादातर लोग पढ़ाई से कोई संबंध नहीं रखते। अगर कोई पढ़ता भी
है तो उसे मूर्ख समझा जाता है। ऐसे पढ़ाई विरोधी माहौल की वजह से
विश्वविद्यालयों के प्राध्यापक अपने विषय संबंधी नई खोजों और नए लेखन से लगभग
अपरिचित रहते हैं। जब उनके पास विद्यार्थी शोध विषय पर बात करने आता है तो वे
उसे ऐसा विषय पकड़ा देते हैं जिससे न उनका कोई परिचय होता और न शोधार्थी का।
स्वयं शोध-निर्देशकों के शोध प्रविधि से अनभिज्ञ रहने के कारण शोध-प्रस्ताव
बनाने के दौरान उल्टी प्रविधि अपनाई जाती है। होना तो यह चाहिए कि विद्यार्थी
अपने रुचि के क्षेत्र के अनुसार शोध-निर्देशक का चुनाव करे और फिर संबंधित
क्षेत्र का अध्ययन करते-करते किसी सवाल से टकराकर रिसर्च गैप को तलाशे और उसके
अनुसार विषय का सुझाव अपने निर्देशक के सामने रखे। आवश्यकता होने पर जिसे
निर्देशक अपनी विशेषज्ञता के द्वारा परिवर्द्धित करे। लेकिन यूनिवर्सिटियों
में होता यह है कि विद्यार्थी का एक अपरिचित विषय से गठजोड़ करा दिया जाता है।
उस विषय में कोई नवीनता है भी या नहीं, शोधार्थी को कई बार यह अपने शोध के
खत्म होने के बाद पता चलता है। हिंदी के ज्यादातर शोधार्थी शोध के बहुत जरूरी
हिस्सों 'संबंधित साहित्य की समीक्षा' और 'शोध प्रश्नों' के बारे में जानते ही
नहीं! दरअसल विषय निर्धारित ही तब होना चाहिए जब शोधार्थी विषय क्षेत्र से
संबंधित साहित्य (पूर्व में किए गए शोध, लिखी गई किताबें और आलेख आदि) का
अध्ययन करते-करते कुछ सवालों से घिर जाता है। इन सवालों को ही शोध प्रश्न कहते
हैं। शोध-प्रारूप निर्माण तक किए गए संबंधित साहित्य और आधार सामग्री के
अध्ययन के आधार पर शोधार्थी इन सवालों के संभावित जवाब भी प्रस्तुत करता है
जिसे परिकल्पना या हाइपोथीसिस कहा जाता है। बाद में शोध कार्य के दौरान इससे
भिन्न निष्कर्ष भी निकलकर आ सकते हैं। इसके लिए शोधार्थी को तैयार रहना चाहिए।
देश के तमाम विश्वविद्यालयों में एम.फिल. और पीएच.डी. के कोर्स वर्क के दौरान
शोध प्रविधि का पेपर जरूर पढ़ाया जाता है लेकिन स्वयं प्राध्यापकों को इसके
बारे में पर्याप्त जानकारी न होने के कारण यह पेपर रस्म अदायगी से ज्यादा कुछ
साबित नहीं होता। इस बात को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि हिंदी जैसे बड़े और
लोकप्रिय अनुशासन में शोध प्रविधि का पेपर होने के बावजूद इसके शोधार्थियों और
निर्देशकों के लेखन में संदर्भ-व्यवस्था की एकरूपता का अभाव है। आधे लोग तो
संदर्भ देते ही नहीं, जो देते हैं वे सब मनमाने ढंग से देते हैं। दुनियाभर के
भाषा-साहित्य के विषयों में एमएलए (मॉडर्न लैंग्वेज एसोशिएसन) पद्धति की
संदर्भ व्यवस्था का पालन किया जाता है, जिसमें लगातार परिवर्द्धन होते रहते
हैं। लेकिन हिंदी के शोधार्थियों और प्रोफेसरों के सामने एमएलए स्टाइलशीट की
बात करना उन्हें विषयांतर सा लगता है। संदर्भ-व्यवस्था के प्रति इतनी अधिक
उदासीनता की वजह स्वयं हिंदी के बड़े और 'नामवर' आलोचकों द्वारा अपने लेखन में
इसकी उपेक्षा है।
अब आते हैं विषयों पर! जब विषय में ही नवीनता नहीं रहेगी तो शोध में मौलिकता
कहाँ से आएगी! हिंदी के शोधार्थी इतने आलसी हैं कि पड़ोस के विश्वविद्यालय तक
भी यह देखने नहीं जाना चाहते कि वहाँ किन विषयों पर शोध हो चुका है और किन पर
हो रहा है! इसका परिणाम यह होता है कि ट्रेंड के अनुसार एक ही विषय पर देश के
सैकड़ों विश्वविद्यालयों में एक ही समय पर शोध चल रहा होता है। उदाहरण के लिए
एक दशक पहले दलित आत्मकथाओं पर देश में कम से कम 500 थीसिस लिखी गई होंगी।
अपने शोध प्रारूप में इन सभी शोधार्थियों ने दावा किया कि 'हमारा शोध विषय
मौलिक और नया है, इस पर अब तक कोई काम नहीं हुआ है।' आजकल यही स्थिति आदिवासी
संबंधी कथा-साहित्य की है। मूल आदिवासी रचनाकारों के लेखन तक गए बिना ही
सैकड़ों थीसिस इस विषय पर लिखी जा चुकी है। दो-तीन दशक पहले यही स्थिति
भक्तिकाल संबंधी शोध विषयों की थी। कथा-साहित्य शोधार्थियों का प्रिय क्षेत्र
है। फलाँ लेखक के कहानी-उपन्यासों में नारी जीवन, दलित जीवन, किसान जीवन या
मजदूर जीवन। इस तरह के विषयों में संबंधित कहानी-उपन्यास में से समाज के
संबंधित तबके के बारे में किए गए चित्रण को दोहराया जाता है। यानी फलाँ
उपन्यास में लेखक ने किसान के शोषण को दिखाया है। इस विश्लेषण की प्रक्रिया
में ज्यादातर शोधार्थी कहानी या उपन्यास में से कथा निकालकर उसी को फिर अपने
शब्दों में लिख देते हैं। अब कोई बताए कि इसमें शोध क्या है? उस उपन्यास या
कहानी को पढ़ने वाला तो समझ ही लेगा कि किसान के शोषण को चित्रित किया है! ठीक
बात है कि साहित्य संबंधी शोध में कोई खोज या आविष्कार या क्रांति नहीं की जा
सकती लेकिन कम से कम विषय के साथ न्याय तो किया ही जा सकता है। हिंदी
शोध-विषयों में 'समाजशास्त्रीय अध्ययन' जोड़ना एक फैशन की तरह है। वस्तुस्थिति
यह है कि इन समाजशास्त्रीय अध्ययन करने वालों में से ज्यादातर को समाजशास्त्र
के किसी सिद्धांत की कोई जानकारी नहीं होती। एक तो हिंदी में समाज-विज्ञानों
की अच्छी किताबें उपलब्ध नहीं हैं और दूसरा शोधार्थी की जड़ता। फलतः शोधार्थी
समाजशास्त्रीय अध्ययन के नाम पर केवल कहानी लिखते हैं। होना यह चाहिए कि आधार
सामग्री में लेखक ने जिस सामाजिक सच का उद्घाटन किया है उसका अध्ययन करने के
लिए हमें समाज-विज्ञानी सिद्धांतों के माध्यम से तुलनात्मक पद्धति द्वारा
विश्लेषण करना चाहिए। इसी प्रकार प्रेमचंद के शब्दों में हर कहानी या उपन्यास
में एक मनोवैज्ञानिक सच होता है, जिसके उद्घाटन के लिए लेखक लिखता है।
शोधार्थी को उसको पकड़ना और विश्लेषित करना चाहिए।
हिंदी में अगर शोध की दशा सुधारनी है तो सबसे पहले इसे मजबूरी के बजाय रुचि से
जोड़ा जाना चाहिए। पुस्तकालयों में हजारों थीसिस धूल से अटी पड़ी हैं। उनको
पढ़ने वाला कोई नहीं है। अब तो थीसिस रखने को जगह भी नहीं बची। फिर उसमें और
बोझ क्यों बढाना! मन हो तभी शोध की दुनिया में आइए। शोध की हालत सुधारने के
लिए हिंदी के प्रोफेसरों में भी नवीनता का इंजेक्शन लगाना होगा जिससे वे सही
शोध प्रविधि और अपने विषय क्षेत्र की नवीन गतिविधियों से परिचित होकर स्वयं को
अपडेट रख सकें। पिछले एक दशक में हिंदी आलोचना में कोई उल्लेखनीय किताब का न
आना हिंदी की शोध-वृत्ति की वर्तमान स्थिति की कहानी कह देता है। हमें याद
रखना होगा कि ज्ञान का आशय केवल सूचनाएँ नहीं हैं, बल्कि देश-दुनिया और
प्रकृति-पर्यावरण के साथ व्यक्ति मन की बेहतर समझ विकसित करना है। अच्छा शोध
साहित्य और समाज को दिशा देता है और राष्ट्र-निर्माण का सहभागी बनता है।
सरकारें तो हमेशा ज्ञान-विरोधी रही हैं क्योंकि शोध की शुरुआत सवाल से होती है
और सरकारें सवालों से डरती हैं। सवाल देश और समाज के जिंदा होने की निशानी है
और मुझे पूरा यकीन है कि हिंदी समाज अभी मरा नहीं।